अपनी प्रतिभा का पता लगाएं
यह कुछ साल पहले था। एक धनी उद्योगपति अपनी मृत्यु शैय्या पर था। उनकी अंतिम इच्छा थी कि उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ भी इकट्ठा किया है, उसे नीलाम कर दिया जाए और उस नीलामी से जुटाए गए सभी धन को बच्चों के दान में दे दिया जाए। जब उसने अपनी पत्नी को अपनी अंतिम इच्छा बताई, तो उसने तुरंत एक नीलामकर्ता को बुलाया और उससे अपने मरने वाले पति के सामान की नीलामी करने का अनुरोध किया।
नीलामकर्ता ने जल्द ही सभी वस्तुओं की नीलामी शुरू कर दी। जब नीलाम होने के लिए कुछ ही चीजें बची थीं, तो नीलाम करने वाले ने थके-मांदे एक पुराने वायलिन को उठाया, जो धूल से ढका हुआ था और बहुत ही उपहासपूर्ण तरीके से कहा, ”
अब इसकी बोली कितने से शुरू करू?” ऐसा करते हैं 500 रुपए से करते हैं। फिर उसने एक लंबी सी साँस ली और लगभग उसी अंदाज में शुरू बोल पड़ा कोई लेने वाला नहीं। अच्छा 300 रुपए… ? अभी भी कोई नहीं इसे लेने वाला? 100 रुपए… ये कैसा रहेगा? अरे… फिर उसकी जोरदार हंसी लोगों ने सुनी… हँसते-हँसते उसने वायलिन को दूर पटक दिया।
एक शक्तिहीन, शिथिल और हकलाती आवाज ने उस नालामकर्त्ता को रोकना चाहा, “माफ करना, क्या मुझे कुछ बोलने दोगे?” वह वृद्ध धीरे से उठा, फिर झुकते हुए, लड़खड़ाते हुए, नीलामकर्त्ता की तरफ बढ़ ही आश्चर्य से देखते हुए वायलिन तक पहुँचा। अपने कुम्हलाएं हाथों से उसने वायलिन को पकड़ा और इस तरह उससे लिपट गया मानो यही वायलिन उसके जीवन का सबसे बड़ा प्यार हो। लोगों की भीड़ की तरफ अपनी पीठ किए हुए उस वृद्ध ने सबसे पहले वायलिन के ऊपर जमा हो चुकी धूल को अपने रूमाल से साफ किया, वायलिन के प्रत्येक स्वर तार को खींचा, उसे व्यवस्थित किया और उस वायलिन को अपनी ठुड्डी के नीचे रखकर एक पारंगत वायलिन वादक की तरह बजाने लगा।
वायलिन की मधुर तरंगों से पूरा का पूरा वातावरण आनंदित हो उठा। लोग यह दृश्य देखकर मानो ठिठक से गए। उन्हें अपनी आँखों और कानों पर भरोसा नहीं हो पा रहा था। उम्र के इस पड़ाव पर भी कोई व्यक्ति इस तरह का जादू चला सकता है! क्या कहें इसे? अलौकिक चमत्कार? जल्द ही आस-पास की गली मोहल्ले के लोग भी वहाँ जमा होने लगे थे; वो संगीत ही कुछ ऐसा था। उसे सुन लेने के बाद लोगों ने दाँतों तले उंगली दबा ली और संगीत की मधुरता में मग्न हो गए। कुछ देर तक वायलिन बजाने के बाद उसने नीलामकर्त्ता को वायलिन थमा दी और फिर अपनी जगह पर जाने लगा। तालियों की गड़गड़ाहट उसका स्वागत कुछ इस प्रकार कर रही थी मानो संगीत का फरिश्ता धरती पर उतर आया हो। अब एक बार फिर नीलामकर्त्ता ने वायलिन अपने हाथ में ली और जोर से बोल पड़ा, “अब इसकी बोली मैं कितने से शुरू करूँ?” एक ने तुरंत ही जवाब दिया… 1000 उसको काटते हुए दूसरी आवाज आयी 1500, फिर एक ने कहा – 2000, इसी तरह से 10000 पर आकर बोली रुकी। जिस वायलिन को नीलामकर्त्ता कबाड़ समझ रहा था… वो बेशकीमती साबित हुई। इस कहानी से “मूल्य” की अवधारणा और इसको किस तरह से अधिकतम सीमा तक पहुँचाया जाए, उसकी जीवंत व्याख्या मिलती है। एक कुशल वायलिन वादक द्वारा सिर्फ तारों को कस देने भर से एक कबाड़ सी दिखने वाली वायलिन 10 हजार रुपये की हो गई। क्या ऐसा हम सब नहीं कर सकते? अपने अंदर छुपी प्रतिभा का अधिक से अधिक उपयोग करने की काबिलियत क्या हम सबके अंदर नहीं छिपी है? हम अपनी काबिलियत कौशल और प्रतिभा को विकसित ही नहीं होने देते। अपना समय व्यर्थ ही गँवाते रहते हैं। जो करते आ रहे होते हैं…. वही करते रह जाते हैं। नतीजे, वही मिलते रहते हैं… जो मिलते आ रहे होते हैं। और फिर पछताना शुरू कर देते है। जीवन में कितना कुछ चाहा था… पर मिला नहीं। इस वायलिन की तरह हम सबके अंदर प्रतिभा कौशल और क्षमता का अपार भंडार है। जरूरत है तो बस जानने की, समझने की और उसे परखते रहने की। आखिर अपनी सामर्थ्य हम नहीं जानेंगे, तो फिर कौन जानेगा? किसी उपकरण आदि की तरह ही हमें अपने मस्तिष्क और शरीर को भी अपग्रेड करते रहना होगा, नहीं तो किसी लक्ष्य को हासिल करने का सपना, कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं होगा।
यही समय है हमें अपने अंदर घर कर गई प्राचीन लेकिन गलत मान्यता से छुटकारा पाने का और अपने अंदर सकारात्मकता तथा
सोच का संचार करने का। धीमे ही सही, अगर हम प्रतिदिन अपने अंदर के वायलिन की धूल को हटाकर कौशल को बढ़ाते रहें और उस वायलिन वादक की तरह अपनी प्रतिभा का उपयोग करते रहें तो हमारा जीवन भी मधुर संगीत की तरह आनंदमय हो जाएगा।
यदि थोड़ा-थोड़ा ही करके, परंतु रोज हम अपने अंदर अच्छे परिवर्तन लाएँ, तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि एक दिन हम बहुत बड़े व्यक्ति बन सकते हैं।
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