मूल क्या है ?
अधिकांश द्विबीजपत्री पादपों में मूलांकुर के लंबे होने से प्राथमिक मूल बनती है जो मिट्टी में उगती है। इसमें पार्श्वयी मूल होती हैं जिन्हें द्वितीयक तथा तृतीयक मूल कहते हैं। प्राथमिक मूल तथा इसकी शाखाएँ मिलकर मूसला मूलतंत्र बनाती हैं। इसका उदाहरण सरसों का पौधा है । एकबीजपत्री पौधों में प्राथमिक मूल अल्पायु होती है और इसके स्थान पर अनेक मूल निकल जाती हैं। ये मूल तने के आधार से निकलती हैं। इन्हें झकड़ा मूलतंत्र कहते हैं। इसका उदाहरण गेहूँ का पौधा है पौधों जैसे घास तथा बरगद में मूल मूलांकुर की बजाय पौधे के अन्य भाग से निकलती हैं। इन्हें अपस्थानिक मूल कहते हैं । मूल तंत्र का प्रमुख कार्य मिट्टी से पानी तथा खनिज लवण का अवशोषण, पौधे को मिट्टी में जकड़ कर रखना, खाद्य पदार्थों का संचय करना तथा पादप नियमकों का संश्लेषण करना है।
TIPS OF ROOT (मूल) ?
मूल सामान्यतः दो प्रकार के होते हैं –
1 . मुसला जड़ ( TAP ROOT )
2 . रेशेदार जड़ या अपस्थानिक जड़ ( ADVENTITIOUS ROOT OR FIBROUS ROOT )
1 . मुसला जड़ ( TAP ROOT )
अधिकांश द्विबीजपत्री पादपों में मूलांकुर के लंबे होने से प्राथमिक मूल बनती है जो मिट्टी में उगती है। इसमें पार्श्वयी मूल होती हैं जिन्हें द्वितीयक तथा तृतीयक मूल कहते हैं। प्राथमिक मूल तथा इसकी शाखाएँ मिलकर मूसला मूलतंत्र बनाती हैं। इसका उदाहरण सरसों का पौधा है
2 . रेशेदार जड़ या अपस्थानिक जड़ ( ADVENTITIOUS ROOT OR FIBROUS ROOT )
एकबीजपत्री पौधों में प्राथमिक मूल अल्पायु होती है और इसके स्थान पर अनेक मूल निकल जाती हैं। ये मूल तने के आधार से निकलती हैं। इन्हें झकड़ा मूलतंत्र कहते हैं। इसका उदाहरण गेहूँ का पौधा है पौधों जैसे घास तथा बरगद में मूल मूलांकुर की बजाय पौधे के अन्य भाग से निकलती हैं। इन्हें अपस्थानिक मूल कहते हैं
मूल के क्षेत्र
मूल का शीर्ष अंगुलित्त जैसे मूल गोप से ढका रहता है । यह कोमल शीर्ष की तब रक्षा करता है जब मूल मिट्टी में अपना रास्ता बना रही होती है। मूल गोप से कुछ मिलीमीटर ऊपर मेरिस्टेमी क्रियाओं का क्षेत्र होता है। इस क्षेत्र की कोशिकाएँ बहुत छोटी, पतली भित्ति वाली होती हैं तथा उनमें सघन प्रोटोप्लाज्म होता है। उनमें बार-बार विभाजन होता है। इस क्षेत्र में समीपस्थ स्थित कोशिकाएं शीघ्रता से लंबाई में बढ़ती हैं और मूल को लंबाई में बढ़ाती हैं। इस क्षेत्र को दीर्घीकरण क्षेत्र कहते हैं। दीर्घीकरण क्षेत्र की कोशिकाओं में विविधता तथा परिपक्वता आती है। इसलिए दीर्घीकरण के समीप स्थित क्षेत्र को परिपक्व क्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र से बहुत पतली तथा कोमल धागे की तरह की संरचनाएँ निकलती हैं जिन्हें मूलरोम कहते हैं। ये मूल रोम मिट्टी से पानी तथा खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं।
मूल के रूपांतरण
कुछ पादपों की मूल, पानी तथा खनिज लवण के अवशोषण तथा संवाहन के अतिरिक्त भी अन्य कार्यों को करने के लिए अपने आकार तथा संरचना में रूपांतरण कर लेती हैं। वे भोजन संचय करने के लिए, सहारे के लिए, श्वसन के लिए अपने आप को रूपांतरित कर लेती हैं (चित्र 5.4 तथा 5.5)। गाजर तथा शलजम की मूसला मूल तथा शकरकंद की अपस्थानिक मूल भोजन को संग्रहित करने के कारण फूल जाती हैं। क्या आप इसी प्रकार के कुछ अन्य उदाहरण दे सकते हैं? क्या आपको कभी देख कर यह आश्चर्य हुआ है कि बरगद से लटकती हुई संरचनाएँ क्या उसे सहारा देती हैं? इन्हें प्रोप रुट (सहारा देनी वाली मूल) कहते हैं। इसी प्रकार मक्का तथा गन्ने के तने में भी सहारा देने वाली मूल तने की निचली गाँठों से निकलती हैं। इन्हें अवस्तभ मूल कहते हैं। कुछ पौधों जैसे राइजोफोरा, जो अनूप क्षेत्रों में उगते हैं, में बहुत सी मूल भूमि से ऊपर वायु में निकलती हैं। ऐसी मूल को श्वसन मूल कहते हैं। ये श्वसन के लिए ऑक्सीजन प्राप्त करने में सहायक होती हैं।
पुष्प
एजियोस्पर्म में पुष्प (फूल) एक बहुत महत्वपूर्ण ध्यानकर्ष रचना है। यह एक रूपांतरित प्ररोह है जो लैंगिक जनन के लिए होता है। एक प्ररूपी फूल में विभिन्न प्रकार के विन्यास होते हैं जो क्रमानुसार फूले हुए पुष्पावृंत जिसे पुष्पासन कहते हैं, पर लगे रहते हैं। ये हैं-केलिक्स, कोरोला, पुमंग तथा जायांग।
केलिक्स तथा कोरोला सहायक अंग है जबकि पुमंग तथा जायांग लैंगिक अंग हैं। कुछ फूलों जैसे प्याज में केल्किस तथा कोरोला में कोई अंतर नहीं होता। इन्हें परिदलपुंज (पेरिऐंथ) कहते हैं। जब फूल में पुंकेसर तथा पुमंग दोनों ही होते हैं तब उसे द्विलिंगी अथवा उभयलिंगी कहते हैं। यदि किसी फूल में केवल एक पुंकेसर अथवा अंडप हो तो उसे एकलिंगी कहते हैं।
सममिति में फूल त्रिज्यसममिति (नियमित) अथवा एकव्याससममित (द्विपार्श्विक) हो सकते हैं। जब किसी फूल को दो बराबर भागों में विभक्त किया जा सके तब उसे त्रिज्यसममिति कहते हैं। इसके उदाहरण हैं सरसों, धतूरा मिर्च। लेकिन जब फूल को केवल एक विशेष ऊर्ध्वाधर समतल से दो समान भागों में विभक्त किया जाए तो उसे एकव्याससममित कहते हैं। इसके उदाहरण हैं- मटर, गुलमोहर, सेम, केसिया आदि। जब कोई फूल बीच से किसी ऊर्ध्वाधर समतल से दो समान भागों में विभक्त न हो सके। तो उसे असममिति अथवा अनियमित कहते हैं। जैसे कि केना ।
एक पुष्प त्रितयी, चतुष्टयी, पंचतयी हो सकता है यदि उसमें उनके उपांगों की संख्या 34 अथवा 5 के गुणक सकती है। जिस पुष्प में सहपत्र होते हैं (पुष्पवृत के आधार में पर छोटी-छोटी पत्तियाँ होती हैं) उन्हें सहपत्री कहते हैं और जिसमें सहपत्र नहीं होते, उन्हें सहपत्रहीन कहते हैं।
पुष्पवृत पर केल्किस, केरोला, पुमंग तथा अंडाशय की सापेक्ष स्थिति के आधार पर पुष्प को अधोजायांगता (हाइपोगाइनस), परिजायांगता ( पेरीगाइनस), तथा अधिजायाता
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